ओ कुर्सी रे तेरे बिना भी क्या जीना ?
नींदों में, सपनों में, गैरों में अपनों में,
तेरे बिना कुछ कहीं ना..!
तेरे बिना भी क्या जीना ?
ओ कुर्सी रे तेरे बिना भी क्या जीना ?
कितनी कोशिश, उथल-पुथल करके मैंने तुझको है पाया,
तूने मुझसे उल्टा-पुल्टा हर तरह का कांड कराया,
जनता के अंडों ने, सामाजिक पंडों ने
मुझको तो छोड़ा कभी ना..!
तेरे बिना भी क्या जीना ?
कुर्सी मैंने तेरे सारे
नियमों का पालन ही किया है,
तेरे वाहन भ्रष्टाचार को उचित स्थान शासन में दिया है,
रिश्वत काले धंधे, राजनीतिक फंदे,
कोई मुझसे अजनबी ना..!
तेरे बिना भी क्या जीना ? ओ कुर्सी रे तेरे बिना भी क्या जीना ?
जाने कौन सी गलती
मुझसे प्यारी कुर्सी आज हो गई,
जो तुम मुझको समझ पराया
मुझसे यूं नाराज़ हो गई, अगले चुनावों में
हार न जाऊँ मैं,
सोच के आये पसीना..!
तेरे बिना भी क्या जीना ?
ओ कुर्सी रे तेरे बिना भी क्या जीना ?
रचयिता :- गजानन महतपुरकर,
कवि, साहित्यकार, स्वतंत्र पत्रकार, मंच संचालक एवं सदस्य- महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी, मुंबई
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