चार्तुमास पर्वों की श्रृंखला है। यह स्वयं भी एक पर्व है और अनेक पर्वों का समवाय भी है।
चार्तुमास का प्रारंभ आषाढ़ की पूर्णिमा से होता है। व्यास, द्वैपायन जैसे कई श्रृषियों की यह जन्मतिथि हैं। इस दिन गुरु पूर्णिमा होने से इस तिथि का और विशेष महत्व हो जाता है। अनेक जैन आचार्यों का इतिहास इसके साथ जुड़ा है। हमारा सबसे बड़ा पर्व पर्युषण तथा संवत्सरी महापर्व, क्षमा-यापना दिवस इन्ही चार महिनों के अंतर्गत आता है। जिससे इन चार महिनों का महत्व जैनों के लिये अत्याधिक बढ़ जाता है। यह चार माह धर्म आराधना के है। भौतिक जगत से दृष्टि हटाकर अंतस में झांकने का समय है यह। स्वयं को मांजने का तपाने का, सोने से कुंदन बनने का समय है चार्तुमास।
बरसात के मौसम में अत्यधिक सुक्ष्म जीवों की उत्पति होती हैं और उससे सारी धरती आकीर्ण हो जाती है। आवागमन या विहार करने से उन जीवों का घात हो सकता है अत अहिंसा धर्म का सुक्ष्मता से पालन करने वाले सभी साधु-संत अपने शिष्यों सहित एक ही स्थान पर निवास करते है, वर्षायोग की स्थापना करते है। चार्तुमास की अवधि आषाढ पूर्णिमा ये कार्तिक पूर्णिमा तक रहती है।
भारत में जैन साधु-साध्वी ही नहीं बल्कि अन्य धर्मो के साधु-संत भी इस क्रिया का पालन करते है तथा इस अवधि में ईश्वर का ध्यान करते हुये जीवदया, करुणा, सेवा, साधर्मिक भक्ति, व्रत, उपवास, परोपकार आदि प्रशस्त कार्यो को करते है तथा अपने भक्तों को करने की प्रेरणा देते है।
वैसे तो साधु की गति सदैव नदी की निर्मल धारा की तरह होती है - सदैव चलते जाओ, बहते जाओ। लेकिन लोगों के अंदर धर्म की भावना प्रबल हो इसलिये यह परोपकारी गुरु चार मास एक जगह रुकते है तथा हमें धर्म का मर्म समझाते है और सद्मार्ग पर चलने की सीख देते है। यही कारण हैं कि आज भी हमारा देश प्रगतिशील आधुनिक होते हुये भी उतना ही धर्मिक और परंपरावादी है।
हिंदू धर्म में कहा जाता हैं कि चार्तुमास के वक्त भगवान् श्री विष्णु क्षीरसागर में शेषशय्या पर योगनिद्रा में शयन करते है। इसलिये इन महीनों में शादी-विवाह, गृहनिर्माण, यज्ञ आदि कार्य नहीं किये जाते। ये चार मास तप-तपस्या, जप के लिये उपर्युक्त है। अधिकतर हमारे धार्मिक त्यौहार इन्हीं चार महीनों के बीच में आते है। अधिकतर लोग श्रावण मास का व्रत, उपवास रखते है। वही इसलाम धर्म में भी रमजान के महीने में एक माह का व्रत रखने का प्रावधान है। पांचो वक्त की नमाज पढ़ना, दान देना, अपने पापों का प्रायश्चित करना एक सच्चा मुसलमान ‘कुरान’ में लिखे गये नियमों का पालन करता है। कहते है चार्तुमास में बालटी में एक-दो बिल्वपत्र डालकर मन में ‘ॐ नम शिवाय’ का मंत्र 4-5 बार बोलकर स्नान करें तो विशेष लाभ होता है। उससे शरीर का वायु दोष दूर होता है और स्वास्थ्य स्वस्थ रहता है।
इस तरह से चार्तुमास के अंतर्गत हमें अपनी भौतिक सुख-सुविधायों से युक्त क्रियाओं का त्याग कर आत्मिक स्तर की क्रियाओं को मांजना होगा, तपाना होगा। शारीरिक व्रत के साथ-साथ मानसिक व्रत भी करना होगा। तभी हर तरह से हम आध्यात्मिक, आत्मिक उन्नति कर पायेंगे। चार्तुमास में देवशयन का रुपक हमें बाह्यमुखी वृतियों से हटकर अंतर्मुखी बनने का संदेश देता है। जीवन का सच्चा सुख परिघि से केन्द्र में जाने में है। अंतर जागरण करो और जीवन को धर्ममय बनाओ।
चातुर्मास में श्रावक-श्राविक के करने योग्य नौ प्रकार का शुद्ध आचरण उपादेय कहा गया है। 1) सामायिक प्रतिक्रमण,2) आवश्यक, 3) पौषध, 4) देवार्चन, 5) स्नात्रपूजा, 6) बह्मचर्य, 7) क्रिया, 8) दान और तप, यह नौ शुद्धाचरण चार्तुमास में अलंकार है। इन नौं विधानों के प्रयोग से नौ निधानों की प्राप्ति होती है।
वर्षावास-चार्तुमास क्यों?
आत्मा से परमात्मा की ओर जाने के लिये।
अहं से अर्ह की ओर जाने के लिये।
आसक्ति से अनासक्ति की ओर जाने के लिये।
हिंसा से अहिंसा की ओर जाने के लिये।
उपासना, स्वाध्याय, साहित्य सर्जन, सम्यगदृष्टि जनजागरण, आराधना, तपस्या, तप, जप के लिये।
योगीसा जीवन जीने के लिये।
जैन-शासन की पुण्य प्रभावना के लिये।
क्रोध से क्षमा की ओर जाने के लिये।
एक-एक क्षण का उपयोग याने प्रमाद रहित जीवन जीने के लिये।
जीवन को होश स्तम्भ बनाने के लिये।
संत-दर्शन-संत वाणी ग्रहण करने के लिये।
आत्मशुद्धि करने के लिये।
यह चार महिने हमें धर्म आराधना के शिखर की ओर ले जाते हैं। आइए इस चार्तुमास में आचार्य भगवन्-साधु साध्वियों के सान्निध्य में हम अपना आत्म लक्ष्य साधे और अपनी आत्मा को परमात्मा बनाने की राह पर ले जाये।
’दुसरों को नहीं स्वयं को निहारना चाहिये
आत्म कषायों को को संयम से बुहारना चाहिये
दर्पण में देह के रुप को क्या देखें
आत्मारुपी परमात्मा को निखारना चाहिये। “
– डॉ मंजू लोढ़ा
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