राष्ट्रवादी विचारक वीर सावरकर को समग्रता से समझने की आवश्यकता



–प्रोफेसर शांतिश्री धुलीपुड़ी,कुलपति, जेएनयू

वीर सावरकर बहुआयामी मेधा के धनी व्यक्तित्व थे, मिटाने की अनेकों कोशिशों के बावजूद आज भी प्रभावशाली हैं। 

26 फरवरी को उन महान राष्ट्रवादी विचारक की 60वीं पुण्यतिथि थी, जिन्हें उनके जीवनकाल में व्यक्तिगत और राजनीतिक द्वेष के चलते उपेक्षित रखा गया। अपने जीवन में एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले नास्तिक विचारक को सांप्रदायिक और साजिशकर्ता का तमगा दिया गया। विनायक दामोदर सावरकर सावरकर ऐसा नाम है जिसे लेते ही तमाम वैचारिक समूहों से कठोर प्रतिक्रिया मिलती है। उन्हें वामपंथी खेमे के बुद्धिजीवियों ने एक हास्यास्पद व्यक्तित्व बनाने की कोशिश की है। इस सोची समझी साजिश के कारण उनके बहुआयामी व्यक्तित्व को एक राजनीतिक नेता तक सीमित करके, उनके साहित्यिक योगदान, बौद्धिक गहराई और मानवीय आदर्शों को घोर उपेक्षा की गई। इस प्रकार के विध्वंसक हिन्दू विरोधी कथानक रचकर हिंदूवादी विचारकों को तुच्छ सिद्ध करने का प्रयास किया गया है। उन्हें एक विद्वान, इतिहासकार, समाजसुधारक, वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले वकील और सबसे ऊपर आजादी के लिए अपार कष्ट सहने वाले व्यक्ति के रूप में भी समझना जरूरी हैं। अतः अब ये आवश्यक है कि हम सावरकर के कम ज्ञात व्यक्तित्व और कृतित्व को जानें, जिससे उन इतिहासकारों और राजनीतिक दलों से सवाल किए जाएं जो उनके प्रति अन्यायपूर्ण दुष्प्रचार करते रहे हैं। लेफ्ट और उनके समर्थक बुद्धिजीवी हमेशा से वीर सावरकर की देशभक्ति और निष्ठा पर सवाल उठाते रहे हैं। लेकिन उन्हें समग्रता में स्वीकार करने का साहस किसी में नहीं है।

धर्म की सीमाओं के परे के विचारक

सावरकर स्वघोषित नास्तिक थे जिनके लिए हिंदू एक सांस्कृतिक और सभ्यतामूलक पहचान थी। उनके लिए हिंदू होने का अर्थ था साझा विरासत, जिसमें हिंदू, सिख, बौद्ध और जैन तो शामिल हैं, किंतु मुस्लिम और ईसाइयों को इससे बाहर रखा। क्योंकि इनकी संस्कृति और श्रद्धा विदेशी संरचना में बसी हुई है। यह दृष्टिकोण 19वीं सदी के राष्ट्रवादी विचारों से निकलता है, जिसमें अन्य धर्मों से घृणा के बजाय स्वतः भारतीय संस्कृति की आंतरिक एकता को महत्वपूर्ण माना गया है। 

उनका नास्तिकवाद भी यूरोप के तर्कशील आंदोलनों से प्रभावित वैज्ञानिक दृष्टिकोण युक्त और पाखंड से पूर्ण रूपेण मुक्त था। सावरकर ने हिन्दुओं की पवित्रता - अपवित्रता वाली पारंपरिक धारणा को चुनौती दी और उन्हें अंधविश्वास, गाय पवित्रता - तथा सामाजिक एकजुटता के लिए शाकाहारी होने को अस्वीकार करते हुए उन्हें त्यागने का सुझाव दिया। उन्होंने सहभोज आयोजित किए, अस्पृश्यता के शिकार लोगों को मंदिर में प्रवेश कराया। सावरकर ने 1931 में "हिंदू समाज के सात बंधन" शीर्षक वाले निबंध में कहा था कि प्रतिभा और बुद्धि के निर्धारक के रूप में आनुवंशिकता गलत थी। समाज अगर अपने वेदोक्तबंदी, व्यवसायबंदी, स्पर्शबंदी, समुद्रबंदी, शुद्धिबंदी, रोटीबंदी और बेटीबंदी जैसे सात बंधनों को तोड़ दे तो वो और भी गौरवशाली बन जाय। इन विचारों और कार्यों से उनकी एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले विचारक और समाजसुधारक की छवि स्पष्ट होती है। जो कि सांप्रदायिक छवि वाली छाप से कोसों दूर है। महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में आधुनिक मशीनों और प्रौद्योगिकी की निंदा की थी। सावरकर ने उसका उत्तर देते हुए कहा, " ट्रैक्टर के युग में लकड़ी के हल का क्या उपयोग है? मैं प्रकृति की ओर वापस जाने के चरखा दर्शन का घोर विरोध करता हूं।"

इसके बावजूद प्रभावशाली खेमे के लोगों ने उन्हें सांप्रदायिक और विभाजनकारी खलनायक घोषित करना ज्यादा पसंद किया। इस प्रकार के विद्रूपण के माध्यम से इन्होंने हिंदू विचारकों को बदनाम किया तथा आक्रांताओं के द्वारा की गई क्रूरता को छुपाने की कोशिश की। सावरकर की वैचारिक बारीकियों को मिटाने का यह प्रयास वृहद हिन्दू विरोधी षडयंत्र का हिस्सा है, जहां हिंदूवादी विचारकों और नेताओं को एक तरफा रूढ़िवादी विचारक घोषित कर दिया जाता है। सत्ताधारियों को इन महान व्यक्तित्वों से न जाने किस बात का भय था? 

महान साहित्यकार और सांस्कृतिक इतिहासकार
सावरकर ने इतिहास और साहित्य को अविस्मरणीय योगदान दिया, किंतु शायद ही कभी स्वीकार किया गया था। वे सिर्फ राजनीतिज्ञ ही नहीं बल्कि एक कुशल लेखक, कवि, इतिहासकार और नाटककार भी थे। उनके साहित्यि में इटली के क्रांतिकारी जोसफ मैजिनी की जीवनी, 1857 का स्वतंत्रता समर जैसी कृतियां शामिल हैं जिसमें मातृभूमि से प्रेम और स्वतंत्रता की पहली लड़ाई का लेखा जोखा दिया गया है। उन्होंने हिंदुत्व : हिंदू कौन हैं? पुस्तक की रचना की जिसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की आधुनिक बुनियाद माना जाता है। 

अंडमान की सेलुलर जेल की काल कोठरी में भी सावरकर की लेखनी को चमक धूमिल नहीं हुई। वहां उन्होंने "जयोस्तुति" नामक मराठी काव्य की रचना की, जो आज भी देशभक्ति की प्रेरणा देता है। " सागरा प्राण तालमललला" शीर्षक की कविता उनके निर्वासन काल की पीड़ा के साथ अपने मित्र मदनलाल ढींगरा से बिछड़ने का दर्द बयान करती है। ये समस्त साहित्य उन्होंने बहुत ही कठिन और विपरीत परिस्थितियों में की । जिससे उनकी कठोर इच्छाशक्ति का पता चलता है जिसके कारण जेल भी उनकी देशभक्ति को तोड़ न सकी थी। बहुत कम मराठी लेखकों ने इतना मौलिक लिखा है। उनकी "सागरा प्राण तळमळला", "हे हिन्दु नृसिंहा प्रभो शिवाजी राजा", "जयोस्तुते", "तानाजीचा पोवाडा" "हिंदुत्व" अंग्रेजी में "द इंडियन वार ऑफ इंडिपेंडेंस 1857" आदि रचनाएं अत्यन्त लोकप्रिय हैं। उनकी कुल 40 पुस्तकें उपलब्ध हैं। भाषाशुद्धि का आग्रह धरकर सावरकर ने मराठी भाषा को 42 से अधिक पारिभाषिक शब्द दिये। जैसे टपाल, प्राचार्य, मुख्याध्यापक, चित्रपट, अर्थसंकल्प आदि।

सावरकर एक महान इतिहासकार भी थे। उन्होंने " सहा सोनेरी पाने" में भारतीय सभ्यता और विदेशी आक्रांताओं के विरोध में उठी चेतना का वर्णन किया है। , " हिंदू पदपादशाही" नामक रचना के माध्यम से मराठा साम्राज्य का विस्तृत वर्णन मिलता है। उनके लेख सिर्फ भूतकाल की घटनाओं के वर्णन के साथ साथ भारतीयों को अपने इतिहास से सीखने और सांस्कृतिक पहचान को पुनर्जीवित करना चाहते थे। 

एतिहासिक कथाकनकों का दोहरा मापदंड
सावरकर को सुनियोजित ढंग से खलनायक के रूप में प्रस्तुत करके दोहरे चरित्र वाले इतिहासकारों ने एक बृहद साजिश रचाई थी। वामपंथी उच्चवर्ग ऐसे लोगों को स्थान नहीं देता जो उसकी विचारधारा से सहमत न हों। सावरकर को सांप्रदायिक कहने वाले लोग खिलाफत आंदोलन के लिए जिसका भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से कोई संबंध नहीं रहा उसके इस्लामी लक्ष्य को लेकर कभी कुछ नहीं कहा या लिखा है। 

एक कठोर विरोधाभास
वामपंथी खेमे के द्वारा सावरकर के कार्यों को महत्व न देना उनके मन में बसे डर का परिचायक है। उनके दोहरे आजीवन भय को भी दिखाता है। यही वामपंथी भारत की सांस्कृतिक एकता और राष्ट्रीय स्वाभिमान को उपेक्षित करके जाति, धर्म, और धार्मिक और प्रांतीय अस्मिता के नाम पर लड़ाने का काम करते रहे हैं। सावरकर को एकं दुष्ट सिद्ध करने की कोशिश करते रहे हैं। जिससे वामपंथ प्रभावी समूह किसी भी वैकल्पिक विचार को स्थान देने का प्रबल विरोधी रहा है। 

हिन्दुओं का डर और बौद्धिक बहुलता 
सावरकर के विरोधी इस आंदोलन के मूल में हिंदू विरोध निहित है। यह पक्षपाती आक्रमण सिर्फ सावरकर पर न होकर विशाल हिंदू संस्कृति और बौद्धिक विकास पर है। वामपंथी लेखकों ने हिन्दुओं के नेताओं और उनके विचारों को प्रतिगामी कहकर लगातार बदनामी की है। ऐसा करते समय उन्होंने यहां की सांस्कृतिक एकता, समाज सुधार आंदोलनों और राष्ट्रीय स्वाभिमान की उपेक्षा की। इस प्रकार के भेदभाव हिन्दू मत और प्रतीकों को दबाने के उद्देश्य से देश विरोधी कथानक को आगे बढ़ाया । समाज सुधार, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और एकता के विचार के साथ सावरकर सभी वामपंथियों को एक साथ चुनौती देते दिख रहे हैं। साझा विरासत आधारित भारत का उनका सपना जाती और धर्म के नाम पर राजनीति करती विभाजनकारी शक्तियों के अस्तित्व को खतरा पैदा करती हैं। सावरकर के विचारों को स्थान देकर ये अपनी जगह खोना नहीं चाहते हैं। ऐसे लोग अभी भी औपनिवेशिक और विभाजनकारी एजेंडे को लेकर चल रहे हैं। सावरकर के साहित्य, इतिहास और सांस्कृतिक विचार अनमोल हैं जो आज भी एकनाथ प्रदर्शक के रूप में प्रासंगिक हैं। 

सावरकर का उपहास करके वामपंथी खेमा उनकी राष्ट्र और समाज सेवा को घोर अपमानित करता है। इससे भारतीयों को उनका इतिहास, संस्कृति और विरासत निष्पक्ष रूप से जानने को नहीं मिलता है। यह बहुत बड़ी बौद्धिक बेइमानी ही कही जाएगी। सावरकर की विरासत को पुनर्जीवित करने का अर्थ है उन सभी एतिहासिक गलतियों और शरारतों को सुधारने का प्रयास करना। 

अब समय आ गया है कि हम इस विद्रूपण से बाहर निकलें तथा, सावरकर के सही रूप को पहचाने। भले ही उसे धूमिल करने का अनेकों प्रयत्न किए गए हैं उनका दैदीप्यमान व्यक्तित्व हम सभी को प्रेरणा देता है। उनका जीवन और कार्य हमें सत्य और न्याय के लिए खड़े होने की प्रेरणा देता है, जिसके लिए अपार साहस, असाधारण क्षमता और अविश्वसनीय प्रतिबद्धता की आवश्यकता पड़ती है। आइए हम सभी सावरकर की सच्ची विरासत से जुड़े, न कि किसी एजेंडा के तहत चलने वाली व्याख्या या असत्य से।

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