खुद के लिए भी जीना सीखो



–डॉ मंजू मंगलप्रभात लोढ़ा 

आजकल फुर्सत के वो क्षण नहीं मिलते।
खुद के साथ जीने को वक्त ही नहीं मिलता।
हम जीते हैं, लेकिन अक्सर औरों के लिए —
औरों की खुशी, औरों की उम्मीदें, औरों की अपेक्षाओं के लिए।

औरों की खुशी के लिए जीना गलत नहीं है,
लेकिन औरों के अनुसार जीना — यह जीवन की सच्ची पहचान नहीं हो सकती।
क्या हम कभी अपनी तरफ से, अपनी तरह से जीते हैं?
क्या हम कभी अपनी सामर्थ्य में रहकर संतोष से जीते हैं?

हर दिन एक अनदेखी दौड़ का हिस्सा बन गए हैं हम —
बिना लक्ष्य के, बिना रुके, बस भागते जा रहे हैं।

आज की यह मशीनी ज़िंदगी
हमें खुद से ही दूर करती जा रही है।
कभी तो अकेले बैठें — खुद के साथ,
अपने मन से बातें करें,
अगर मन न करे तो कुछ भी न करें,
बस एक किताब पढ़ें,
या मनपसंद संगीत सुनते हुए नृत्य कर लें —
सिर्फ अपनी खुशी के लिए।

और सोशल मीडिया?
उसने तो जैसे हमसे हमारा समय छीन लिया है,
हमारे अपने छीन लिए हैं।
साथ बैठे लोग भी आज साथ नहीं होते।
हर कोई अपने-अपने मोबाइल में ऐसा खोया है
मानो कोई खजाना वहीं छिपा हो।

क्यों न दिन में दो-तीन घंटे मोबाइल को "तिलांजलि" दे दें?
थोड़ा वक़्त खुद को दें, अपने शौक़ को दें।
क्यों हर पल फोन की घंटी पर दौड़ें?
हर नोटिफिकेशन पर क्यों भागें?

व्हाट्सएप ग्रुप में वही फॉरवर्ड्स,
फिर उन्हें डिलीट करने की मशक्कत,
फिर सोशल मीडिया पर अपने फोटो डालकर
खुश होने का दिखावा...

क्या यही जीवन है?

पहले एक साधारण सा टेलीफोन होता था
और लोग दिल से जुड़े रहते थे।
आज इतने स्मार्टफोन हैं,
लेकिन संवाद और संवेदना गुम हो गई हैं।

बच्चों की दुनिया भी अब मोबाइल में सिमटने लगी है।
हम नहीं जानते वे क्या देख रहे हैं, क्या सीख रहे हैं।
समय से पहले वे बड़े हो रहे हैं,
पर बचपन कहीं खोता जा रहा है।

क्यों न यह नियम बनाएं कि जब तक बच्चे 15 वर्ष के न हो जाएँ,
उनके हाथ में मोबाइल न आए?
ज़रूरत हो, बाहर जाएं, तब दें —
पर दिन भर उसमें उलझे रहें, यह सही नहीं।

हम भूल जाते हैं कि
84 लाख योनियों के बाद मिला है यह अमूल्य मानव जीवन।
न जाने कब समाप्त हो जाए यह यात्रा।
और अगर हम यूं ही उलझे रहेंगे
तो बस भौतिक सुविधाओं की होड़ में खोते चले जाएंगे।

दिखावे की इस दौड़ में,
हम खुद से, अपनों से, और परमात्मा से दूर होते जा रहे हैं।

तो आओ — फुर्सत के क्षण निकालें,
अपने लिए जिएं, अपने भीतर झांकें,
प्रकृति को निहारें,
परमात्मा को धन्यवाद दें —
कि उसने हमें यह अनमोल जीवन दिया।

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