सत्य भीतर था और हम बाहर भागते रहे–डॉ मंजू लोढ़ा, वरिष्ठ साहित्यकार



“जो दिखता है… वो होता नहीं।
और जो होता है… उसे कोई देखता नहीं।
हमने जीवन को एक मृगतृष्णा बना दिया है।
हर चमक में सच्चाई खोजते रहे…
पर सत्य तो भीतर था और हम बाहर भागते रहे।”

“हर कोई इस दौड़ में है…
जहाँ मंज़िल का कोई ठिकाना नहीं।
बस एक-दूसरे को पीछे छोड़ने की होड़ है।
हर चेहरा मुस्कराता है…
पर दिल रोता है कहीं।”

“क्यों है यह छल, यह दिखावा, यह ढोंग?
क्यों आदमी आदमी से दूर होता चला गया?
विश्वास टूटे…
रिश्ते रूठे…
और हर कोई बस ‘मैं’ और ‘मेरा’ में खो गया।”

“हम भूल गए वो दिन जब सादगी में सुख था,
जब प्रेम में भगवान था,
जब बिना कारण मुस्कराना भी एक वरदान था।”

“अब तो हर दिल में कोई सौदा है,
हर रिश्ते में कोई फायदा है।
झूठ की दीवारें ऊँची हैं इतनी…
कि सच्चाई की आवाज़ भी लौट आती है।”

“सिकंदर भी गया… खाली हाथ गया।
राजा-महाराजा, सम्राट… सब गए।
महावीर ने राजमहल छोड़ा,
गौतम ने सिंहासन त्यागा।
उन्होंने संसार नहीं, अपने भीतर के अंधकार को जीता।”

“फिर हम क्यों बंधे हैं इन सोने की जंजीरों में?
क्यों अपने ही स्वार्थ की सीमाओं में घिरे हैं?
क्यों नहीं सीखते उनसे,
जो निर्विकार होकर मुस्कराए,
जिन्होंने सब कुछ त्यागकर भी अमरत्व पाए?”

“जीवन… यह बस कुछ पल की ठहरन है।
इस साँस के आगे कुछ भी नहीं।
जो आज है… वह कल नहीं होगा।
और जो कल आएगा… वह भी रुकने वाला नहीं।”

“तो क्यों न जिएं सत्य के संग…
प्रेम के रंग में, माधुरी भाव में…
जहाँ दूसरों की भलाई में हमारा सुख हो।
जहाँ ‘विश्व कल्याण’ ही जीवन का लक्ष्य हो।”

“त्याग… प्रेम… और शांति…
यही जीवन का सार है।
बाक़ी सब तो बस क्षणिक लेनदेन है।
जो भीतर शुद्ध है… वही अमर है।
जो बाहर के मोह में है… वह अस्थिर है।”

“चलो फिर लौटें उसी राह पर…
जहाँ मन शांत… आत्मा प्रफुल्लित हो।
जहाँ कोई प्रतिस्पर्धा नहीं…
कोई छल नहीं…
बस ईश्वर का अनुभव हर सांस में हो।”

“जो दिखता है… वो होगा नहीं।
पर जो भीतर है… वही सच्चा जीवन है।
यही है जीवन की सच्चाई।
यही है हमारी वास्तविक यात्रा।”

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