–डॉ मंजू मंगलप्रभात लोढ़ा
बैठी हूँ ऐसे स्थल पर,
जहाँ चारों ओर समंदर ही समंदर है,
न कोई ओर दिखाई देती,
न किसी छोर का अनुमान है।
निरंतर बहता जल,
गरजती हुई लहरें,
जैसे पूछती हों मुझसे—
क्या कभी थमती हैं चाह की यह धार?
सोचती हूँ,
अगर कोई इंसान
इसके बीच फँस जाए,
तैरना जानता हो तब भी
कहाँ तक तैरेगा?
न कोई किनारा,
न कोई आश्रय—
बस अथाह गहराई।
तब या तो
कोई देवदूत उतरे,
नाव लेकर आए,
या आसमान से
कोई हेलीकॉप्टर आकर
उसे बचा ले—
अन्यथा
डूबना ही है उसकी नियति।
फिर दृष्टि भीतर मुड़ती है—
अरे!
हमारे अंदर भी तो
एक समंदर बसता है,
इच्छाओं का, तृष्णाओं का,
हजारों योजन फैला हुआ।
एक चाह पूरी होती नहीं
कि दूसरी जन्म ले लेती है,
और मन
लहरों की तरह
अशांत रहता है।
समंदर भी अपनी ही मर्यादा में रहता है,
इसीलिए तो आज तक
यह दुनिया बची हुई है।
अगर वह भी अपनी सीमा लाँघ दे,
तो धरती का अस्तित्व डगमगा जाए।
वैसे ही भीतर के समुद्र को भी
मर्यादित करना होगा,
तभी हम बच पाएँगे,
तभी हमारी दुनिया बच पाएगी।
यहाँ भी वही प्रश्न
कैसे निकले इससे?
कौन थामे हाथ?
या तो कोई सद्गुरु मिले,
जो विवेक की नाव देकर
पार लगा दे,
या स्वयं समझ जाएँ हम
कि इच्छाओं के इस सागर का
न कोई ओर है
न कोई छोर।
इसलिए आज
मैंने ठान लिया है—
इच्छाओं की लहरों को
विवेक की मर्यादा में बाँधना है,
कम में संतोष,
और मन में शांति भरकर
सुख की धरती पर
स्थिर होना है।
क्योंकि
जब समुद्र मर्यादा में होता है,
तब ही
जीवन की नाव
सुरक्षित किनारे तक पहुँचती है।
0 Comments