गोद में भगवान....



बुढ़ापे ने खेल कुछ ऐसा रचा
अनायास ही....
बापू को बालक बना दिया,
बूढ़े मन को बचपन में ला दिया...
इसी दौर में बापू को...जब...
गोद में मैंने अपने बिठाया
क्या कहूँ.....!
कितना सुखद एहसास था,
खुद पर होता नहीं विश्वास था..
जो जिया बस मेरे लिए,
गोद में मेरी वह आज आबाद था,
देखा नहीं था कभी भगवान को,
लगा गोद में मेरे अब भगवान था..
अफसोस था बस इस बात का...
कभी सर पर जो
मुझको बिठाता रहा....
मैं उसे गोद भर ही अपनी,
दे पा रहा हुँ......
मैं माथे पर अपने .....
उसे ना बिठा पा रहा हूँ....
जो विश्वास मुझको देता रहा
वही अविश्वास से....
मना मुझको करता रहा
शायद यह जताने की कोशिश
करता रहा कि.....
बेटा बुढ़ापे की आस है
पर बेटा...सेवा करेगा कि नही...
संशयात्मा....अक्सर....
इस बात का लगाता कयास है...
शायद इसीलिए गोद में आकर भी
खुद को सँभाले रहा...
हर कदम पर मेरी,
नजरों में नजरें मिलाये रहा
जो पहले से नजरों में उसकी
मैं नाजुक रहा....आज भी...
अपनी नज़रों में....
मुझको नाजुक बनाये रहा
गोद में हँसाने की कोशिश
मैंने हरदम किया.....
जो गुदगुदाने की ...जबरन...
कोशिश किया दोस्तों...फिर...
धीरे से बुदबुदाते हुए
हौले से मुस्कुराते हुए
इशारे से बापू बता ही दिया
बेटे...तू कल भी नादान था,
आज भी उतना ही नादान है...
बेटे को गोद में लेना आसान है,
बाप को गोद लेना कठिन काम है
सुनो मेरे बेटे.......
बाप का भार सहना,
नहीं आसान है.......
बाप का भार सहना
नहीं आसान है.......


रचनाकार....
जितेन्द्र कुमार दुबे
अपर पुलिस अधीक्षक/क्षेत्राधिकारी नगर,जनपद-जौनपुर

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