ऐतिहासिक सत्य और सांस्कृतिक पुनरुत्थान का प्रतीक है सम्भल–प्रो. शांतिश्री धुलीपुड़ी , कुलपति, जेएनयू

 

"यह सिर्फ इतिहास की बात नहीं है, बल्कि हिन्दू सभ्यता की सत्य और न्याय प्रति आग्रह भी है".सम्भल सिर्फ एक नगर स्थान ही नहीं, बल्कि ऐतिहासिक तथ्यों, सांस्कृतिक प्रतिरोध और सत्य के लिए लगातार चलने वाला संघर्ष का प्रतीक भी है। विभिन्न आक्रांताओं ने कई शताब्दियों तक यहां के इतिहास को मिटाने, मंदिरों को ध्वंस करके उनके स्थान पर नए ढांचों के निर्माण करने से लेकर उनकी कार्यवाही को सही बताने वाले इतिहास का पुनर्लेखन करवाया। इसलिए आज सम्भल सिर्फ एक संघर्ष का स्थान ही नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता के उस चिन्ह के रूप में लूट, विध्वंस और मनगढ़ंत हेराफेरी और अपमान का साक्षी भी है। सम्भल की कथित शाही जामा मस्जिद भी इसी प्रकार ऐतिहासिक विरूपण (distortion) का ज्वलंत उदाहरण है। वर्तमान में इस ढांचे का प्रयोग मस्जिद के रूप में किया जा रहा है, जबकि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (ASI) ने प्राचीन स्मारक संरक्षण अधिनियम 1904 के अनुसार इसे संरक्षित घोषित किया हुआ है। एक ऐतिहासिक स्मारक होने के बावजूद इसमें नियमानुसार सर्वेक्षण नहीं होने दिया जा रहा है। हिंदू मंदिर होने के प्रमाणित चिन्ह मिलने के बाद भी, इसका प्रयोग एक मस्जिद के रूप में हो रहा है। वास्तुशिल्प के विश्लेषण से यह तथ्य सामने आया है कि इसका निर्माण 1526 में बाबर ने नहीं करवाया था, बल्कि इसकी निर्माण शैली अलग है जो 18वीं सदी की वास्तुकला से मिलती है। 

भूमि अतिक्रमण और एतिहासिक तोड़ - मरोड़ की सम्भल कोई इकलौती घटना नहीं है, बल्कि यह एक बड़े षडयंत्र का हिस्सा है। सम्पूर्ण भारत में मंदिरों का विध्वंस और कालांतर में उनके इतिहास को, उनसे संबंधित अभिलेखों को चालाकी से बदला या तोड़ा मरोड़ा गया है, जिससे सत्य अस्पष्ट हो जाए या अंधकार में खो जाए। विदेशी आक्रांताओं द्वारा तोड़े गए या बदलाव कर मस्जिद बनाए गए हिंदू मंदिरों के पर्याप्त सबूत होने के बावजूद, तथाकथित "इतिहासकारों" की पीढ़ियों ने जानबूझकर इस सच को स्वीकार नहीं किया था।

हिंदू विरासत मिटाने के प्रयास वाले चिन्ह इतिहास के साथ साथ वर्तमान में चल रहे बौद्धिक और सांस्कृतिक संघर्ष का प्रतीक भी है। वामपंथी और मुस्लिम इतिहासकार भी कई दशकों से हिंदुओं को मिटाने की अंग्रेजों वाली बौद्धिक साजिश के सह - अपराधी रहे हैं। इसीलिए वे हमेशा एतिहासिक खुदाई, पुरातत्व खोजों के माध्यम से सच जानने के प्रयासों का सदैव पुरजोर विरोध करते रहे हैं। इससे सिद्ध होता है कि, शताब्दियों पहले मंदिरों के विध्वंस को सही बताने वाले षड्यंत्रकारी बुद्धिजीवियों के वैचारिक उत्तराधिकारी आज भी सक्रिय हैं। यह प्रयास स्वतंत्रता के पहले और बाद में भी जारी है। यही छद्म इतिहासकार और लाभार्थी बुद्धिजीवी, हिन्दू विरासत को वापस पाने के प्रयासो को "सांप्रदायिकता" और "प्रतिगामी" कहकर खारिज करते आए हैं। 

इतिहास मिटाने की इस साजिश के बीच सम्भल एक अमिट हिन्दू छाप के रूप में खड़ा है। यह सिर्फ इतिहास की बात नहीं है, बल्कि हिन्दू सभ्यता की सत्य और न्याय प्रति आग्रह भी है। यह सिर्फ हिंदुओं के अपमान का विरोध ही नहीं है, बल्कि बलपूर्वक छीने गए सभ्यतागत स्वाभिमान और उसके चिन्हों की वापसी का प्रयास भी है। यक्ष प्रश्न यह है कि, यदि भारत में हिन्दुओं को उनका मौलिक अधिकार नहीं मिलेगा तो और कहां मिलेगा? 

इतिहास को अस्वीकृत करने का पाखंड
अक्सर तर्क दिया जाता है कि, सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने के लिए इतिहास में हुई गलतियों को सुधारने के प्रयासों से बचना चाहिए। लेकिन असत्य की नींव पर सद्भावना नहीं पनप सकती। विश्वभर में अन्य समुदायों ने अपने पवित्र स्थलों की रक्षा के लिए बड़े संघर्ष किए, तो इस प्रकार के एतिहासिक अन्याय को सहकर चुप रहने की अपेक्षा हिन्दुओं से ही क्यों की जाती है? अन्य कोई भी धर्म अपने पवित्र स्थलों के विध्वंस को किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं करता है। फिर भी वैश्विक स्तर पर ढोंगी प्रवृत्ति के कारण इस प्रकार के विध्वंस को रोकने या सुधार करने पर बड़ी दोमुंही नीति अपनाई गई है। एक तरफ जहां मुस्लिम या ईसाई पवित्र स्थल पर हमले अथवा कब्जे की अफवाह भर से पूरा विश्व आगबबूला हो जाता है। दूसरी ओर हिन्दुओं के पवित्र स्थलों को नष्ट करने और हिन्दुओं के द्वारा अपने अधिकार की बात कोई वैश्विक मुद्दा क्यों नहीं बनता, विश्व समुदाय मौन है जाता है? सबसे घटिया बात तो ये है कि हिन्दुओं के द्वारा अपने विध्वंस किए गए मंदिरों, लूटी गई विरासतों को वापस पाने के न्यायसंगत प्रयासों को किसी हमले की तरह दिखाया जाता है, न कि नैसर्गिक न्याय की मांग के रूप में। 

 अनेकों कथित बुद्धिजीवी इसे धार्मिक संघर्ष के रूप में दिखाने का प्रयास करते हैं, लेकिन यह विषय संघर्ष का न होकर एतिहासिक सत्य की पुनर्स्थापना का है। क्योंकि धार्मिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता तभी प्राप्त की जा सकती है, जब हर व्यक्ति सत्य को स्वीकार करे और उसका सम्मान भी करे। बिना इतिहास के घावों को भरे विकसित भारत की संकल्पना और सिद्धि संभव नहीं है। पवित्र स्थलों का पुनरुद्धार और जीर्णोद्धार कोई बदले की कार्यवाही न होकर, सांस्कृतिक पुनरुत्थान का कार्य है। यह औपनिवेशिक और उत्तर- औपनिवेशिक सत्ता द्वारा चालकी से थोपे गए कथानकों (narratives) को सुधारने का प्रयास भी है। इसलिए बिना किसी हिचकिचाहट के प्रत्येक भारतीय को, चाहे वह किसी भी संप्रदाय के हों, सद्भावना और विविधता का पर्याय प्राचीन भारतीय सभ्यता पर गर्व होना ही चाहिए। 

अतः सम्भल का संघर्ष सिर्फ एक ढांचे को लेकर नहीं है, बल्कि यह एक महत्वपूर्ण बौद्धिक और वैचारिक लड़ाई है, जो कई सदियों से चला आ रहा है। जब 20 वीं सदी में राष्ट्रीय आंदोलनों ने प्राचीन भारतीय विरासतों का पुनर्स्मरण कराना प्रारंभ किया तो उस समय भी वामपंथी और उनसे प्रभावित इतिहासकारों ने हिंदू सभ्यता के प्रतीकों और विचारों को तोड़ मरोड़ कर खंडित करके मिटाने का प्रयास किया। उन्होंने अंग्रेजों के उसी दूषित विचार को आगे बढ़ाया जिसमें हिन्दुओं को निष्क्रिय और विभाजित धर्म का घोषित करके, बाहरी हस्तक्षेप की आवश्यकता व्यक्त की गई थी। वामपंथी और मुस्लिम बौद्धिक गिरोह ने हिंदू धर्म को और भी विद्रूपित करके उनके ऊपर अपने संस्करण का इतिहास थोप दिया जिससे हिन्दू सभ्यता के हर चिन्ह मिट जाएं। इस तरह के तत्व और सत्य पुरातात्विक अध्ययन के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। इसके माध्यम से इस्लामिक आक्रांताओं की लूट और मंदिरों के विध्वंस साक्ष्य जुटाए जा सकते थे। इसीलिए वर्षों से पुरातात्विक अध्ययन को अलग थलग हाशिए का विषय बनाए रखा गया था। जिन खुदाईयों के माध्यम से मस्जिदों को हिन्दू मंदिर तोड़ कर बनाए जाने के सबूत मिले उन्हें अस्वीकार करके रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया था। भारत के वर्तमान पर नियंत्रण और भविष्य को अपने हिसाब से ढालने की गहरी बौद्धिक साजिश को इतिहास के पुनर्लेखन और उसके साथ बेइमानी के माध्यम से व्यक्त किया। हिन्दुओं की एतिहासिक शिकायतों की उपेक्षा करते हुए कथित विद्वानों द्वारा सांस्कृतिक पुनर्निर्माण को ही अवैध घोषित करना शुरू कर देना कहां तक उचित है। 

सांस्कृतिक पुनर्जागरण की दृष्टि 
सम्भल आज हिंदू सभ्यता के विरोध में थोपे गए कथानकों को अस्वीकार करने के चिन्ह के रूप में उठ खड़ा हुआ है। यह चीख चीख कर कह रहा है कि सच को अधिक समय तक छुपाया नहीं जा सकता है। इसने हमें स्मरण कराया है कि इतिहास सिर्फ भूतकाल की घटनाओं का वर्णन नहीं है, बल्कि यह अस्तित्व, न्याय और "स्मृति के अधिकार" का भी प्रश्न है। इसलिए सम्भल ऐतिहासिक स्थल से बढ़कर, एक दार्शनिक विचार है। इसमें धर्म की अखंड निरंतरता और आध्यात्मिक चेतना का सार मिलता है जो सदियों के हमलों को झेलता हुआ खड़ा है। इसीलिए ऐसा माना जाता है कि भगवान विष्णु के अंतिम अवतार कल्कि यहीं प्रकट होंगे। इसके चिन्ह सभी इब्राहिमी धर्मों से भी अधिक प्राचीन हैं। भारत में एक मुस्लिम के लिए मस्जिद बनाने के स्थान का कोई शास्त्रीय विधान नहीं हैं। अतः मस्जिद कहीं भी बनाई जा सकती है। इस नमनीयता से भावी संघर्षों को टाला जा सकता है। जबकि हिंदू, जैन, बौद्ध और सिख धर्म के लिए भारत ही जन्मभूमि, कर्मभूमि और पुण्यभूमि है। यह भी स्मरण रहे कि मंदिरों को तोड़ना और इतिहास का विद्रूपण सिर्फ धन या राजनीतिक नियंत्रण के लिए नहीं था। यदि ये सिर्फ लूट होती तो लुटेरे सारी संपत्ति लेकर वापस चले जाते। बल्कि उनका लक्ष्य तो भारतीय संस्कृति और सभ्यता को नष्ट करने जैसा बड़ा और खतरनाक था। भारत में मंदिर सिर्फ उपासना का स्थल नहीं थे, वे शिक्षा, कला और दर्शन का केंद्र थे। उन्हें नष्ट करके भारतीयों के अस्तित्व और जन मानस के आपसी संबंध को समाप्त करना था। 

कहा जाता है कि जो सभ्यता अपना इतिहास भूल जाती है, वह अपनी गलतियों को दोहराने के लिए शापित होती है। आज सम्भल का संघर्ष किसी प्रतिकार के लिए न होकर, पुनःस्थापना, पुनर्जीवन, विरोध और पुनर्निर्माण के लिए हो रहा है। यह इतिहास की स्मृतियों को ठीक करने और भावी पीढ़ियों को सत्य से अवगत कराने का प्रयास है। जिस राष्ट्र की सांस्कृतिक अस्मिता को नष्ट कर दिया जाता है, उसका वैचारिक और सैद्धांतिक पतन भी होने लगता है। इसलिए हिन्दू इतिहास की पुनर्खोज और स्थापना भारत के भविष्य के लिए परमावश्यक है। आज जब सारी दुनिया अपनी सांस्कृतिक विरासतों को बचाने में लगा है, तो भारत पीछे क्यों रहे। यदि वेटिकन और मक्का का इतिहास संरक्षित है तो हिन्दुओं का इतिहास और उनके स्थल क्यों नहीं? जो इसे मिटाना चाहते हैं, उनके हाथ में हिन्दुओं की विरासतें क्यों रहें? इसकी पुनर्स्थापना को किसी आक्रामक कार्यवाही के रूप में न देखकर, एक सांस्कृतिक पुनर्निर्माण के रूप में देखना होगा। इसीलिए आज हिन्दू समाज अपने पवित्र धर्म स्थलों को लुटेरों और हेराफेरी करने वाले इतिहास के चंगुल से मुक्त कराना चाहता है। 

क्योंकि "विकसित भारत" बनाने की यात्रा सिर्फ आर्थिक और तकनीकी प्रगति से नहीं होगी, बल्कि उसके लिए मजबूत सांस्कृतिक चेतना भी जरूरी है। इसके लिए सभी अपमानजनक औपनिवेशिक चिन्हों को मिटाने के साथ एक ऐसे भविष्य का निर्माण करना है जिसमें सत्य को स्वीकृति मिले, इतिहास को सही आकार मिले और विरासतों को उत्सव की तरह सहेजा जाए। सम्भल इस बड़े संघर्ष का आमुख है। यह सिर्फ एक स्थान या मंदिर की बात नहीं है, बल्कि यह भारतीय सभ्यता की आत्मा का जीवंत प्रश्न है जिसकी l यह परंपरा और आधुनिकता का सामंजस्य है, निरंतरता और परिवर्तनशीलता का प्रतीक है, अध्यात्म और भौतिकता का संगम है, और एक ऐसी जीवन पद्धति है जिसने हजारों वर्षों की खतरनाक घावों को सह कर भी अपनी आत्मा को सजीव रखा है।

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