श्राद्ध - पूर्वजों के प्रति होता है सम्मान का भाव


श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धा। श्रद्धा सिर्फ भावना नहीं, प्राण-ऊर्जा से भी जुड़ा है श्राद्ध। अक्सर भावनाओं के स्तर पर जुड़ाव को प्रेम कहा जाता है और इस प्रेम का प्रदर्शन अपने पूर्वजों के प्रति पितुपक्ष में विशेष रूप से किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि मृत्यु उपरांत मृत आत्मा को वायु घटित शरीर प्राप्त होता है और पितृपक्ष का अर्थ होता है, पितरों की उपासना का पक्ष। यजुर्वेद में कहा गया है कि शरीर छोड़ने के पश्चात जिन्होंने सत्कर्म,जप-तप, ध्यान किया होता है, उन्हें ब्रह्मलोक प्राप्त होता है। अर्थात वह ब्रह्मलीन हो जाते हैं। वह स्वर्ग की प्राप्ति कर लेते हैं, स्वर्ग की प्राप्ति का तात्पर्य देव तत्व की प्राप्ति से किया गया है। राक्षसी कर्म करने वाले कुछ प्रेत योनि में अनंत काल तक भटकते रहते हैं, और कुछ पुनः धरती पर जन्म ले लेते हैं। जन्म लेने वालों में यह जरूरी नहीं है कि वह मनुष्य योनि में ही जन्म ले। इसके पूर्व वह सभी पितृ लोक में रहते हैं। उक्त सभी हमारे पितर होते हैं। इस प्रकार हम जिन्हें जानते हैं और जिन्हें नहीं भी जानते हैं, सभी के लिए पितृपक्ष में अन्न-जल को अग्नि को दान करते हैं। अग्नि अन्न-जल को हमारे पितरों तक पहुंचाकर उन्हें तृप्त करती हैं। पितृ, पितामह और प्रपितामह। ऐसी मान्यता है कि मंत्र शक्ति वह सतकर्मों के आधार पर पितरों तक वंशजों की यह प्रार्थना पहुंच जाती है। शास्त्रों के नियमों के अनुसार श्राद्ध के लिए अधिकार केवल पुत्र को ही है। पुत्र के अभाव में पुत्री का पुत्र नाती को भी श्राद्ध के लिए योग्य माना गया है इस प्रकार पुत्री के अभाव में भाई भी श्राद्ध कर सकता है। पितृपक्ष एक ऐसा समय जब हमारे मन में अपने प्रियजनों की याद ताजा हो जाती है और उनके साथ व्यतीत पल-पल फिर से हमारे दिलों-दिमाग में छा जाते हैं। इस पक्ष में हिंदू धर्म के लोग मन, कर्म, वचन के साथ आहार-विहार में संयमित जीवन जीतें हैं। पितरों को स्मरण कर जल अर्पित करते हैं, निर्धन एवं ब्राह्मणों को दान देने के साथ ही सत्कर्म करते हैं। हमारे धर्म ग्रंथों के अनुसार मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण प्रमुख माने गए हैं। पितृ ऋण, देव ऋण और ऋषि ऋण में पितृ ऋण सर्वोपरि है। उसमें पिता के साथ ही माता व सभी अन्य बुजुर्ग भी सम्मिलित होते हैं जिन्होंने हमें अपना मनुष्य जीवन धारण करने तथा उसका विकास करने में सहयोग दिया। जन्मदाता माता-पिता व अन्य बुजुर्गों को लोग मृत्यु उपरांत विस्मित ना कर दे इसलिए भी श्राद्ध का विशेष विधान बताया गया है। ब्रह्मा पुराण के अनुसार पितृपक्ष में विधि-विधान से तर्पण करने से पूर्वजों को मुक्ति मिलती है। यह भी कहा गया है कि पितृपक्ष में जो भी अर्पण किया जाता है वह पितरों को सीधे प्राप्त होता है। पितर अपना भाग यथा संभव पाकर प्रसन्न होते और अपने वंशजों को खुशहाली, समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं। लेकिन यह तभी संभव है जब मनुष्य अपने संपूर्ण जीवन-पर्यंत सत्कर्म, दया, धर्म आदि नेक कार्य करता है। प्राणी मात्र सुख की प्राप्ति और दुख का आभाव चाहता है जो कर्म प्राणी करता है वह उसके फल को प्राप्त करता है। सारे संसार में पूर्वजों की स्मृति को अक्षण्य रखने का यह एक धार्मिक साधन है। पूर्वजों की महानता का आदर करना यह एक मानवोचित कर्तव्य हैं।  पितर देवताओं के समान आदरणीय और समर्थवान होतें हैं। यह श्राद्ध-तर्पण हमारे पूर्वजों, माता-पिता और आचार्यों के प्रति सम्मान का भाव है।
(लेखक रिसर्च स्कॉलर हैं)
✍️ *डॉ.आनन्द कुमार गुप्ता*

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