मुंबई : अखिल भारतीय साहित्य परिषद के तत्वावधान में ‘साहित्यकार से संवाद’ शृंखला में रविवार दिनांक 11.07.21 सायं को डॉ. विद्यानिवास मिश्र की शिष्या रही डॉ. विद्या बिन्दु सिंह से साक्षात्कार सम्पन्न हुआ। सुश्री माण्डवी सिंह ने सरस्वती वन्दना से इसे प्रारम्भ किया व राष्ट्रीय मन्त्री डॉ. साधना बलवटे ने आयोजन की दृष्टि पर प्रकाश डालते हुए प्रास्ताविक भाषण प्रस्तुत किया।
डॉ. विद्या बिन्दु सिंह ने अपनी जीवन यात्रा के विषय में बात शुरू करते हुए कहा कि बचपन से ही उनका पुस्तकों से नाता बना रहा। उनकी अधिकांश शिक्षा प्राइवेट रूप से सम्पन्न हुई। उस समय लड़कियों के पढ़ने-लिखने पर समझा जाता था कि वे घर के प्रति अपना उत्तरदायित्व नहीं निभा पाएँगी। अतः उनके व्यवहार कुशल होने की चुनौती थी। शादी के बाद स्वतन्त्रता सेनानी ससुर ने कहा कि घर में सरस्वती आ गई है; पर वे घर के कामकाज को भी बख़ूबी करती और रात में ही पढ़ाई-लिखाई का काम करती।
घायल हारिल पक्षी की व्यथा से उन्होंने पहली कविता लिखी थी और दीवाली पर्व पर दूसरी। वे पाँचवीं कक्षा से ही कविता लिखने लगी थी। एक बार उनके भाई उनकी रचनाओं की कॉपी उठाकर शहर के प्रसिद्ध रचनाकार सत्यनारायण द्विवेदी द्विरेफ के पास ले गए। उनकी सकारात्मक टिप्पणियों से उन्हें प्रोत्साहन मिला। नौकरी के साथ आकाशवाणी-दूरदर्शन पर कार्यक्रम सहित पुस्तक प्रकाशन के लिए उन्हें नोटिस भी मिला पर वे अपने पथ पर बढ़ती रही। उन्होंने अपने कुछ हाइकू एक फ़िल्म में पढ़े, वह फ़िल्म जापान में पुरस्कृत भी हुई।
अभिव्यक्ति के लिए छटपटाहट होती है पर सब कुछ नहीं लिखा जाता। ईमानदार अभिव्यक्ति बहुत कठिन होती है। परिवेश व परिस्थितियाँ ही रचनाकार से लिखवाती हैं। लेखक को आत्मालोचन की दुधारी पर चलना होता है। लेखन से दर्द विस्तार पाता है, जो मूल्यवान है। लेखक की संवेदना की थाती कोई चुरा नहीं सकता। सांसारिक रिश्तों से बाहर आकर ही विदेह हुआ जा सकता है। वास्तव में हम रचना नहीं करते, हमारे भीतर नियामक है, जो हमसे यह कार्य करवाता है। ज्ञान की परम्परा के लिए उन्होंने परिजनों, गुरुजन, पूर्ववर्ती साहित्यकारों व ऊर्जा प्रदान करने वाले पाठकों के प्रति आभार व्यक्त किया।
साहित्य का धर्म लोकहित को अभिव्यक्ति देना है। यह सबका हित करे, यही मंगलाशा होनी चाहिए। इसके माध्यम से हम आस्था विश्वास की जोत जलाए रखें। रचना मेरा कर्म है और मैं उसे सन्तान की तरह पालती हूँ।
शिवराज भारतीय, धुड़ाराम पदम, बृजकिशोर वर्मा, अटल मुरादाबादी, माण्डवी सिंह आदि ने उनसे प्रश्न किए तो वे बोली कि लोकगीत जीवन व्यवहार का सत्य है। इस परम्परा से जुड़े रहें। इनके द्वारा अपनी संस्कृति को बचाने की ज़रूरत है। शास्त्रों के वचनों को सुरक्षित रखने पर ध्यान दें। हमारा गौरव बोध बना रहे, हम भटकें नहीं। मैंने नार्वे देश में पानी के जहाज़ पर लोक धुन सुनकर यह अनुभव किया कि इनका व लोक गीतों का प्रभाव बहुत गहरा होता है। ये संस्कारों से परिचित करवाते हैं। रामायण मेले में मैंने लोकगीत सुनाया तो प्रतिक्रिया मिली कि ये गीत सुन लेने भर से समाज हिंसा मुक्त हो सकता है।
हिन्दी की लोकभाषा में सभी विधाओं में खूब लिखा जा रहा है। इनमें आंचलिकता होते हुए भी ये हिन्दी की शक्ति हैं। नई पीढ़ी सुविधा छोड़कर इनसे जुड़े, इसलिए मैं चौपालों व विद्यालयों में जाकर ऐसी कहानियाँ सुनाती हूँ।
कार्यक्रम के अन्त में उन्होंने विवाह गीत व उससे पहले एक कजरी भी सुनाई -
बने कन्हैया बैद नन्द के लाला रे।
पकड़ कलाई कुँवर कन्हाई, जतन से दियो दबाई।
हरियाणा प्रान्त की ओर से डॉ. सारस्वत मोहन मनीषी (अध्यक्ष), रमेशचन्द्र शर्मा (का. अध्यक्ष), रामधन शर्मा (उपाध्यक्ष) डॉ. योगेश वासिष्ठ (महामन्त्री) हरीन्द्र यादव (कोषाध्यक्ष), नवरत्न (साहित्य मन्त्री), कृष्ण लता यादव (गुरुग्राम) आदि ने सहभागिता की। देश के अलग-अलग प्रदेशों से डॉ. सुशील त्रिवेदी, अजय कुमार के.सी., महेन्द्र मधुकर, प्रवीण आर्य, प्रेम शेखर, रीता सिंह, सुनीता बग्गा, विद्या चिटको, उषा किरण सोनी, शीला मिश्रा, अनीता चौहान, हौसिला प्रसाद त्रिपाठी, अभिमन्यु सिंह, ओम प्रकाश भार्गव, जनार्दन यादव, त्रिपुरारि शर्मा, उमेश शुक्ला, सत्य पटनायक, पुखराज प्रजापत, प्रवीण गुगनानी, कलाधर आर्य, दिलबर कुमार, हेमरीज व रमेश कुमार गवली आदि की गूगल मीट पर उपस्थिति रही तो अनेक श्रोता फ़ेसबुक पर भी सहभागी रहे।
डॉ. नीलम राठी द्वारा संचालित इस कार्यक्रम की समाप्ति पर उन्होंने सभी के प्रति आभार भी व्यक्त किया।
0 Comments