हिंदुस्तान का फिल्म इतिहास अपने आँचल में एक से बढ़कर एक नगीने समेटे हुए है । फिल्म निर्माण कला के तमाम पहलूओं पर बारीकी से गौर करते हुए अवलोकन करे तो 70 के दशक में एक ऐसी फिल्म आयी जो शुरु के कुछ दिनों तक तो कछुए की चाल से चली पर उसके बाद तो एक ऐसी सूनामी में बदल गयी जिसकी छींटें घर घर तक पहुंँच गयीं । आज भी उस फिल्म का नशा कमोवेश उसी तरह सर चढ़ कर बोल रहा है । ठीक पचास साल पहले, आज ही के दिन यानि कि 15 अगस्त 1975 को मुंबई के मिनर्वा थियेटर में एक फिल्म का प्रीमियर हुआ जिसका नाम था "शोले" । उस समय की यह सबसे बड़ी मल्टीस्टारर फिल्म थी और डायरेक्टर राज सिप्पी की निर्देशक के रुप में यह तीसरी फिल्म थी इसके पहले वो 'अंदाज एवं सीता और गीता' जैसी सुपर हिट फिल्में दे चुके थे । उनके कंधों पर इस फिल्म की सक्सेज को लेकर बड़ा बोझ था । रिलीज़ के बाद जब इस फिल्म को ठंडा रिस्पांस मिला तो उनकी टीम ने आनन फानन में तय किया कि शायद अमिताभ के किरदार की मौत लोगों को पसंद नहीं आयी इसलिए लोगों को फिल्म अच्छी नहीं लग रही है इसलिए इसके क्लाईमेक्स को रिशूट करके अमिताभ के किरदार को जिंदा किया जाये पर लेखक सलीम जावेद के थोड़ा सा और इंतजार करने की सलाह पर वो रुक गये । उसके कुछ ही दिनों के बाद फिल्म ने जो रफ्तार पकड़ी फिर तो वो जैसे रुकना ही भूल गयी और आज रमेश सिप्पी को ढ़ेर सारी शानदार फिल्में देने के बावजूद केवल और केवल शोले के लिए याद किया जाता है । शोले का कथानक ओरिजिनल नहीं है । तमाम अंग्रेजी फिल्मों से कहानी, सीन्स और थीम्स हूबहू काॅपी कर लिए गये । जिनमें कुछ नाम हैं ( The Good, The Bad and The Ugly, Once Upon a Time in the West , Seven Samurai, North West Frontier etc) लेकिन एक बात की दाद देनी होगी कि यह इंस्पिरेशन या काॅपी भी इतनी शानदार तरीके से की गयी हैं कि इसे आज दोषमुक्त करना ही बेहतर होगा । उस समय काल में इस तरह की फिल्म Larger than life जैसी फीलिंग्स लाने में बेहद सफल रही । वो कालखंड भारत में खासकर चंबल के इलाके में सक्रिय डाकुओं की हजारों कहानियों से गूंजता रहता था । शायद उन डाकुओं की वो अनदेखी कहानियां इस फिल्म के जरिये लोगों के जहन में आसानी से उतर गयीं । फिल्म का खलनायक गब्बर सिंह भी वहीं के एक असली डाकू गब्बर सिंह से प्रेरित था । फिल्म के लेखक एवं स्क्रिप्ट राईटर सलीम-जावेद द्वय थे जो उस समय तक हाथी मेरे साथी,जंजीर, दीवार जैसी कुछ सुपर डुपर हिट फिल्में लिखकर स्वयं में सुपरस्टार बन चुके थे । हालांकि स्टोरी इंस्पायर्ड थी परंतु उसको हिंदी सिनेमा को माहौल में उन दोनों ने इतनी खूबसूरती से गढ़ा कि यह हर दर्शक के दिल में उतर गयी । सलीम जावेद ने इस फिल्म के डायलाॅग्स भी लिखे थे । अगर संवादों की बात की जाये तो फिल्म इतिहास में शायद ही ऐसी कोई फिल्म होगी जिसके लगभग सभी प्रमुख डायलाॅग्स लोगों को जबानी रट गये हों । कितने आदमी थे.. जो डर गया समझो मर .. बसंती इन कुत्तों के सामने मत नाचना... यहां से पचास पचास कोस दूर गांव में... कितनी गोली है इसमें...बहुत याराना लगता है.... मैं लिखता चला जाऊंगा पर ये लिस्ट खत्म होने का नाम नहीं लेगी । इतने गजब के संवाद लिखना सच में किसी करिश्मे से कम नहीं था । शायद सलीम जावेद भी संवाद लेखन में फिर इस ऊंचाई पर नहीं चढ़ पाये । स्क्रिप्ट और संवाद का घालमेल इतना शानदार था कि एक कैरेक्टर सांभा केवल तीन शब्द बोलता था पर वो चरित्र आज तक सभी को याद रह गया । मसलन जब गब्बर पूछता है अरे ओ सांभा, कितना ईनाम रखा है सरकार ने? तो सांभा की ओर से जवाब आता है "पूरे पचास हज़ार" सिर्फ यही एक छोटा सा संवाद सांभा यानि मैक मोहन को हमेशा के लिए अमर कर जाता है । इस फिल्म के कलाकारों में संजीव कुमार (ठाकुर),धर्मेंद्र (जय), अमिताभ (वीरू), हेमा मालिनी (बसंती), जया बच्चन (राधा), अमजद खान (गब्बर सिंह), असरानी (जेलर), जगदीप (सूरमा भोपाली), लीला मिश्रा( मौसी) आदि बेहद कामयाब रहे । एक्टिंग के लिहाज से सबसे प्रभावशाली गब्बर सिंह था । यह नये नवेले अमजद खान के मैनेरिज्म कमाल का था कि तम्बाकू चबाता गब्बर जब जब पर्दे पर आया दर्शकों की रीढ़ की हड्डी में सिहरन दौड़ गयी । गब्बर सिंह का किरदार हमेशा किंग ऑफ फिल्मी डाकू के रूप में याद रखा जायेगा । जय और वीरू की दोस्ती और उनके कारनामें बेहद शानदार थे । धर्मेंद और अमिताभ पूरी फिल्म के ज्यादातर फ्रेम्स में अपने सशक्त अभिनय का लोहा मनवाते रहे । इन दोनों की एक्टिंग उनके कैरेक्टर के हिसाब से बेहद शानदार थी । तांगेवाली बसंती (हेमा) तो अपनी सुंदरता और अदाओं से दर्शकों के दिल में उतर गयी । जेलर साहब और सूरमा भोपाली ने तो हास्य को नेक्स्ट लेवल पर पहुंचा दिया । असरानी का डायलाॅग "हम अंग्रेजों के जमाने के जेलर हैं हा हा" और जगदीप का भोपाली अंदाज वाला डायलाॅग "हमारा नाम सूरमा भोपाली ऐसे ही नहीं है" लोगों की जबान पर चढ़ गया । वहीं लीला मिश्रा (मौसी) की घरेलू बातचीत मसलन "अरे भइया सगी मौसी हूं कोई सौतेली मां नहीं" भी लोगों को बहुत भायी । इन तमाम कलाकारों ने फिल्म को लेजेंड बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी । सभी की एक्टिंग अव्वल थी। इस फिल्म की अधिकांश शूटिंग बैंगलोर के पास रामनगर इलाके की एक पहाड़ी पर हुई थी जो आजकल एक पर्यटन स्थल बन गयी हैं । जहां पर्यटक शोले के तमाम सींस की लोकेशन को देखकर उस एरा को याद करते हैं । फिल्म की फोटोग्राफी गजब की थी और तकनीकी रूप से उस समय से कहीं आगे की थी । द्वारका दिवेजा के फिल्मांकन में शोले पहली फिल्म थी जो 70 mm फार्मेट में और स्टीरियो साउंड के साथ रिलीज हुई थी । खासकर पटरियों पर दौड़ती ट्रेन वाला सीन शूट करना काफी चैलेंजिंग था । फिल्म की एडीटिंग तो कमाल की है । एम एस शिंदे ने अद्भुत एडीटिंग कर दिखाई । पूरी फिल्म की कसावट इसी जानदार एडीटिंग का कमाल है । इसके लिए उन्हें इस फिल्म का इकलौता फिल्म फेयर अवार्ड भी मिला । इस फिल्म में आर डी बर्मन का संगीत था । पंचम उस समय संगीत के सुपर स्टार बन चुके थे । वो एक से बढ़कर एक संगीतमय गाने दिये जा रहे थे । इस फिल्म में भी उनका संगीत अच्छा था पर शायद उनके शीर्ष लेवल तक नहीं पहुंच सका सिवाय एक गाने के जो कि था "महबूबा महबूबा" । हालांकि यह गाना भी डेमिस रुसोस के गाये एक ग्रीक गाने "से यू लव मी" से पूरी तरह इंस्पायर था पर पंचम ने इसे ग्रीक गाने से काफी बेहतर और मेलोडियस बना दिया । पंचम का खुद गाया हुआ यह गाना आज तक एक रिद्मिकल पावरहाउस जैसा बना हुआ है । इसके कुछ और गाने जैसे कि "ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे और टायटल संगीत" भी शानदार था । आनंद बख़्शी के लिखे गीत अच्छे थे । इस फिल्म को 9 फिल्मफेयर नाॅमिनेशन्स मिले पर ये एक ही अवार्ड जीत पायी । हालांकि दर्शकों ने इस फिल्म को सभी अवार्डों से बहुत ऊपर पहुँचा दिया । यह फिल्म मिनर्वा थियेटर में लगातार 5 साल तक चली थी । इसने पूरे देश में आज तक का सबसे बड़ा रिकार्ड 60 थियेटर्स में गोल्डन जुबली और 100 थियेटर्स में सिल्वर जुबली का कायम किया । इसकी कमाई की बात की जाये तो उस समय की सबसे अधिक कमाई करने वाली फिल्म तो थी ही साथ साथ ये भी कहा जाता है कि इंफ्लेशन को एडजस्ट करने के बाद आज के समय के संग कंपेयर करने में ये आज तक की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म है। इसकी चर्चा आज तक दुनिया की तमाम फिल्म इंडस्ट्रीज में होती है । यह पहली फिल्म है जिसके संगीत के रिकार्ड्स एवं कैसेट्स तो निकले ही साथ साथ डायलाॅग्स के रिकार्ड्स और कैसेट्स भी निकले और खूब बिके ।
शोले एक ऐसी कालजयी फिल्म बन गयी हैं जिसने इस स्वर्णिम इतिहास को खुद अपने हाथों से लिखा है । आज पचास साल बाद भी यह फिल्म उतनी ही जवान है जितनी अपने रिलीज होने वाले दिन पर थी । रमेश सिप्पी ने इस जादू को गढ़ा है । उनको साधुवाद । इस फिल्म से जुड़े हर शख्स ने अपना बेहतरीन आउटपुट दिया है । पर इस फिल्म का अगर इकलौता किरदार चुना जाये जिसके जादू ने दर्शकों को दीवाना बना दियाऔर जिसने फिल्म को अविस्मरणीय बना दिया वो है ......
क्या कहा आपने गब्बर सिंह
नहीं नहीं वो सुपर पावर निश्चित रुप से है इसके लेखक द्वय सलीम-जावेद । इस फिल्म को एक सर्वाधिक मनोरंजक फिल्म होने के नाते इसे 5 स्टार देना जरुरी हो जाता है ।
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