एक हजार साल पहले, एक भारतीय शासक ने ऐसा कार्य किया, जो संभवतः भारतीय उपमहाद्वीप से संचालित सबसे साहसी समुद्री अभियान रहा होगा। राजेंद्र चोल प्रथम, महान चोल वंश के वंशज, ने अपने पूर्वजों के समुद्री सीमा की रक्षा के उद्देश्य को पार कर समुद्र पर शक्ति का प्रक्षेपण किया। उनके अभियानों से भारतीय प्रभाव वर्तमान के इंडोनेशिया, मलेशिया और थाईलैंड तक फैला था, जिसने श्रीविजय साम्राज्य की नौसैनिक शक्ति को चुनौती दी और चीन के संग वंश के साथ मजबूत व्यापारिक संबंध स्थापित किए। हमारे सबसे बड़े नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, ने हाल ही में गंगैकोंडाई चोलापुरम, स्थित राजा राजेंद्र चोल की राजधानी, की अपनी यात्रा के माध्यम से इस सभ्यतागत धरोहर का जश्न मनाया जिससे भारत की प्राचीनतम समुद्री गाथा का पुनः स्मरण हो गया। प्रधानमंत्री मोदी का दृष्टिकोण और मिशन सभी भारतीयों को हमारी ऐतिहासिक जड़ों से जोड़ना है और हमें अपने गौरव की इस स्मृति में एकजुट करना है।, जिससे हमारे राष्ट्रीय स्मृति का निर्माण करना, परंपराओं को आधुनिकता से जोड़ना, क्षेत्र का संबंध क्षेत्र से, निरंतरता परिवर्तन से, व्यापार व वाणिज्य से, विकसित भारत के लिए एक शसक्त मार्ग तैयार करना है। हमारी सभ्यता की इन समुद्री उपलब्धियों का वह प्रसिद्ध अध्याय, जो हमारे लिए गर्व का स्रोत है, स्वतंत्रता के बाद उपनिवेशी भूल-भुलैया और जानबूझकर की गई उपेक्षा के कारण दफ़न हो गया है।
जहाँ स्कूल की पाठयपुस्तकों में मुगल शासकों और उनकी मामूली दिनचर्या को पर्याप्त स्थान मिला है, वहीं भारत की समुद्री उपलब्धियों और राज्यनीति की किंवदंती को सू़त्र रूप से भूला दिया गया है। आज हिंद महासागर का स्थान जिओस्ट्रैटेजिक परिप्रेक्ष्य में शक्ति प्रतिस्पर्धा का केन्द्र बिन्दु बन रहा है और समुद्री व्यापार मार्गों का महत्त्व बढ़ रहा है, भारत राजेंद्र चोल की नौसैनिक जीत की 1000 साल की वर्षगांठ को एक ऐतिहासिक मील का पत्थर के रूप में याद कर रहा है। हालांकि, इसे उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण मानना चाहिए, क्योंकि यह हमारे लिए चोल वंश की उपलब्धियों और रणनीतिक दूरदृष्टि पर आधारित। यह भारत की समुद्री पहचान को पुनः स्थापित करने का अवसर प्रस्तुत करता है।
चोल् और भारत की पहली ब्लू-वार्टर नौसेना का उदय
राजेंद्र चोल प्रथम के काल में चोल वंश, अपने शिखर पर था। यह भूमि आधारित प्रशासन और समुद्री महत्वाकांक्षा का अनूठा मेल था। यदि गहराई से अध्ययन किया जाए, तो उनके नौसैनिक अभियानों को सावधानीपूर्वक योजनाबद्ध संचालन माना जाना चाहिए, जो बंगाल की खाड़ी से लेकर दक्षिणपूर्वी एशिया तक फैले थे। ये मिशन लूटपाट के कार्य नहीं थे, जैसा कि वामपंथी इतिहासकारों का असत्य प्रचार है। बल्कि, वे व्यापार नियंत्रण, राजनीतिक प्रतिष्ठा बनाए रखने, और भारतीय संस्कृति को मुख्यभूमि से बाहर प्रवर्धित करने के रणनीतिक प्रयास थे।
उपनिवेशवादी मानसिकता भारतीय शासकों के बीच कभी नहीं रही। यदि हम इसे आधुनिक संदर्भ में देखे, तो यह सौम्य शक्ति का उपयोग था, जिसे कठोर नौसैनिक क्षमता से सहायता दी गई थे। यह 13 वीं सदी में ब्रिटिश, फ्रांसीसी, स्पेन, और पुर्तगाली अभियानों से बिल्कुल भिन्न था। इस दृष्टि से, राजेंद्र चोल ने भारत के स्वदेशी समुद्री दृष्टिकोण का निर्माण किया, जो उपनिवेशी प्रभुत्व से अधिक सहकारिता का प्रतीक था। वास्को दा गामा या ईस्ट इंडिया कंपनी के आने से पहले ही, चोल ने समुद्रों के रास्ते पर कूटनीति और व्यापार विकसित कर लिया था, जो मुख्यभूमि से कहीं अधिक था।
चोल शासन ने दिखाया कि सुव्यवस्थित और युद्ध-प्रशिक्षित नौसेना कमान के संयोजन से एक “अच्छे शासन मॉडल” का निर्माण किया जा सकता है, जिसमें तटीय प्रशासन, बंदरगाह अवसंरचना और व्यापार संघों का व्यापक नौसैनिक रणनीति के साथ गहरा सम्बंध था। भारतीय मंदिर शिलालेख और ताम्रपत्र के माध्यम से रियायतें समुद्री कंपनियों (जैसे अय्यवोल और मणिग्रमम) के अस्तित्व को दर्शाती हैं, जो वाणिज्य को समन्वयित करती थीं और दक्षिणपूर्वी एशियाई राज्यों के साथ लिंक बनाती थीं। सबसे महत्वपूर्ण बात, राजेंद्र चोल के अभियानों ने भारतीय कला, वास्तुकला, धर्म, और भाषा को मुख्यभूमि से बहुत दूर प्रसारित किया था। जिससे आज समझा जाता है कि संस्कृति का वर्चस्व दक्षिणपूर्वी एशिया के साथ गहराई से जुड़ा है। स्मारकों, मंदिर, संस्कृत शिलालेख, और हिंदू-बौद्ध राज्यनीति, जो थाईलैंड से जावा तक पाए जाते हैं, उनमें भारतीय प्रभाव के स्पष्ट चिन्ह हैं, जिन्होंने इन क्षेत्रों के बीच समुद्र को एक पुल के रूप में बना दिया।
उपनिवेशकालीन उपेक्षा और सभ्यतागत पुनरागमन
इतने अद्भुत सभ्यतागत और व्यावहारिक नीति प्रभावों के बावजूद, राजेंद्र चोल की समुद्री अभियानों की कथा 1947 के बाद की राष्ट्रीय गाथा में सुनियोजित रूप से नजरअंदाज हुई। उपनिवेशवादी इतिहासशास्त्र ने स्वैच्छा से भारतीय राज्यों और उनकी पुरानी सभ्यताओं को पृथक कर दिया। इसलिए, भारतीय सभ्यता को मुख्य रूप से एक स्थलीय इतिहास बना दिया गया। इस तरह की विकृतियों को सुधारने के बजाय, स्वतंत्र भारत में रणनीतिकात्मक सोच को सीमाओं और कुछ राज्यों तक सीमित कर दिया, उन समुद्रों को नजरअंदाज किया जो कभी भारतीय पहल और पहुंच का स्थल थे । परिणामस्वरूप, एक निकृष्ट रणनीतिक दृष्टिकोण पैदा हुआ, जिसमें समुद्री इतिहास को उपनिवेशी जहाजरानी चमत्कारों में संकुचित किया गया। राजेंद्र चोल का नौसैनिक विमर्श में बहुत कम उल्लेख होता है। इसी तरह, भारतीय तटीय संबंधता और संस्कृति प्रसार नीति बनाने या विदेशी नीति में स्थान पाने में संघर्ष किया। यहां तक कि नौसेना की वर्षगांठ और पाठ्यक्रम भी लगभग एक हजार साल पहले तमिल तट से उभरे समुद्री शक्ति का जिक्र कभी-कभी ही करते थे।
क्या यह उपेक्षा जानबूझकर या अज्ञानता में हुआ, यह कहना कठिन है। परन्तु अब खुशी की बात है कि यह स्मृति ह्रास धीरे-धीरे उलट रहा है। हाल के वर्षों में, भारत की स्वदेशी रणनीतिक परंपराओं की गहराई और गतिशीलता के प्रति राष्ट्रीय जागरूकता बढ़ी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का निरंतर संस्कृति विरासत का संदर्भ लेना, नदी युद्ध में लचित बोरफुकन की विरासत का उल्लेख किया, 2022 में भारतीय नौसेना के प्रतीक का पुनः उद्घाटन, जिसमें छत्रपति शिवाजी महाराज के राजसी मुहर का चित्रण हुआ, स्वदेशी ज्ञान प्रणालियों (IKS) का रक्षा और सुरक्षा के क्षेत्र में सचेत पुनरुत्थान का संकेत है। इस व्यापक विचार और राजनीतिक बदलाव में, चोल नौसैनिक विरासत एक आधार स्तंभ के रूप में कार्य करता है। यह धारणा को चुनौती देता है कि समुद्री रणनीति और वैश्विक प्रभाव भारत की परंपरा से बाहर थीं। वास्तव में, वे हमारे सभ्यतागत डीएनए में शामिल थीं।
समुद्र का पुनर्पाठ
जैसे भारत एक प्रमुख भारत - प्रशांत समुद्र क्षेत्र में शक्ति बनने का लक्ष्य रख रहा है। चोल अनुभव का पुनरावलोकन केवल गरिमा का विषय नहीं है। बल्कि, यह एक रूपरेखा भी प्रस्तुत करता है। सबसे पहले, यह हमें सिखाता है कि समुद्री शक्ति बहुआयामी होनी चाहिए। चोल बेड़ा केवल एक सशस्त्र उपकरण नहीं था। उसने व्यापार, कूटनीति, धार्मिक संपर्क, और सांस्कृतिक प्रवाह को भी सुनिश्चित किया। इसी तरह, भारत की आधुनिक नौसेना रणनीति को रक्षा से आगे बढ़कर मानवीय मिशनों, समुद्र मार्ग सुरक्षा, क्षेत्रीय संपर्क और आपदा प्रत्युत्तर भी शामिल होना चाहिए। दूसरा, हमें समुद्री जागरूकता में निवेश करना चाहिए, न कि केवल नौसैनिक उपकरणों में। समुद्र सदियों से भारतीय मन से अनुपस्थित रहा है।
शैक्षिक संस्थानों को समुद्री अनुसंधान, नवाचार, और नीति-निर्माण के इंजन बनना चाहिए। एक प्रमुख राष्ट्रीय संस्था के रूप में, JNU अपने "त्रिशूल" प्रकल्प से इस प्रयास में अपना योगदान दे रहा है। यह परियोजना तीन मुख्य केंद्र विकसित करने का लक्ष्य रखती है, जो समुद्री सुरक्षा और रणनीतिक अध्ययन पर केंद्रित हैं, इनका नाम प्रसिद्ध नौसैनिक विचारकों और रणनीतिज्ञों के नाम पर रखा गया है: छत्रपति शिवाजी महाराज सुरक्षा एवं रणनीतिक अध्ययन केंद्र (CSMCS&SS), राजा राजेंद्र समुद्री अध्ययन केंद्र (RCMS), और लचित बोरफुकान विशेष हाइड्रोस्ट्रैटजिक वास्तुकला अध्ययन केंद्र (LBSCSHAA)। ये संस्थान एक मजबूत शोधकर्ताओं, रणनीतिज्ञों और समुद्री जीवन से जुड़े लोगों का समुदाय बनाना चाहते हैं, जो भारत की महासागरीय जिम्मेदारियों और अवसरों को समझें, सिर्फ़ रणनीतिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि सभ्यतागत विरासत का महत्व भी सामने लाएं।
तीसरा, हमें हिंद महासागर को परिधि न समझें, बल्कि भारत की विशाल रणनीति का केंद्रीय हिस्सा मानें। अफ्रीका के पूर्वी तट से लेकर मलक्का जलडमरूमध्य तक, महासागर हमें मित्रों, साझेदारों और प्रभाव के संभावित स्थलों से जोड़ता है। भारत को अपने को एक “सभ्यतागत समुद्री शक्ति” के रूप में पुनः स्थापित करना चाहिए, जो अपने इतिहास में गहराई से जड़ी हुई हो और अपनी बाहर की ओर उन्मुखता पर भरोसा करे। राजेंद्र चोल की के अभ्यास को केवल विजय का संदेश न मानें। इसमें जुड़ाव, व्यापार-प्रेरित कूटनीति और रणनीतिक गहराई का तत्व है। उनके अभियानों से हमें याद दिलाया जाता है कि भारतीय रणनीति, उसकी सर्वश्रेष्ठ स्थिति में, बाहर की ओर खुली, सांस्कृतिक रूप से समृद्ध, और आर्थिक रूप से सतर्क थी।
मेमोरी से समुद्री भाग्य तक
राजेंद्र चोल की नौसैनिक अभियानों के 1000 साल का उत्सव मनाना अतीत की स्मृति का उत्सव है, हमारी ऐतिहासिक चुप्पियों का सामना करने और हमारी रणनीतिक दृष्टि को सही करने का अवसर है। यह मान्यता है कि हिंद महासागर केवल भौगोलिक सीमा नहीं है, बल्कि एक सभ्यतागत संवाद और समुद्री संभावनाओं का क्षेत्र है। आज की भारतीय नौसेना जटिल जल में सैर कर रही है, अरब सागर में पाइरेसी से लेकर दक्षिणी चीन सागर में रणनीतिक प्रतिस्पर्धा तक। क्योंकि भारतीय नौ शक्ति की जड़ें गहरी हैं।
ये उस समय से जमी थीं जब भारतीय जहाज आत्मविश्वास, उद्देश्य और शक्ति के साथ दूर-दराज के टापुओं तक पहुंचे थे। भारतीय नौसेना का नया प्रतीक, शिवाजी के राजसी मुहर से प्रेरित, और भारत के समुद्री धरोहर की बढ़ती स्वीकृति देश के मानवीय पुनःप्राप्ति का संकेत है। जैसे ही हम इस सहस्राब्दी का जश्न मनाते हैं, राजेंद्र चोल का स्मरण हमें करना चाहिए। उन्हें न केवल अतीत के राजा के रूप में, बल्कि भविष्य के रणनीतिकार के रूप में भी याद रखना होगा। उसकी यात्राएँ दूर के देशों की नहीं थीं, बल्कि एक दृष्टि का प्रकट रूप थी। उसकी विरासत और दृष्टि, —सम्मान करने, सीखने, और कार्यान्वित करने के लिए पहले और बाद के कई लोगों की तरह, हमारे लिए भी महत्वपूर्ण हैं।
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